Wednesday, May 19, 2010

मैं खुद से लडती हूँ

अनचाही ज़िन्दगी के सफ़र में
हर दिन टूटती हूँ
हर लम्हा बिखरती है ख़ुशी
हर दिन टपकते हैं आंसू
हर रात अपनी पलकें पोंछ कर
नए दिन की सुबह देखने को
समेट कर उन टुकड़ों को
फिर उठती हूँ
गिरती हूँ तो बिन सहारे खुद संभलती हूँ
चल पड़ती हूँ राह पर
रास्ते में आते पत्थरों को ठोकर मार बढती हूँ
अकेली उड़ती पतंग सी
कटने का इंतज़ार करती हूँ !

1 comment: